9-2-11

का पता बदल गया है। यहाँ पर जारी:

http://devanaagarii.net/hi/alok/blog/

अलबत्ता, पुराने लेख यहीं मिलेंगे:

सोमवार, सितंबर 29, 2003 23:24
 
क्या सङ्गणकों की वजह से इंसान को सचमुच आम जीवन में व्यवस्थित रह पाने में सफलता मिली है? मुझे तो नहीं लगता, यानी कम से कम मुझे तो नहीं हुई है। मैं तो अब भी उतना ही भुलक्कड़ और बेतरतीब हूँ जितना पहले था। पहले सोचता था कि मैं सभी दोस्तों के पते और जन्मदिन अपने पास फ़ाइल में रखूँगा, सबसे सम्पर्क बना के रखूँगा, सबको डाक कभी भी भेज सकता हूँ, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। आपके क्या अनुभव हैं? बल्कि उल्टे अन्तर्जाल भी एक दुर्व्यसन की तरह ही हो गया है। अब तो जीवन उसी के इर्द गिर्द घूमता है, बजाय जीवन को सुहूलियत देने के, सङ्गणक के चारों ओर ही सभी काम होते हैं। इसीलिए शायद पिताजी इसे इन्द्रजाल का नाम देते हैं! वैसे मैं बड़े दिनों से हिन्दी में एक और चिट्ठा ढूँढ रहा हूँ लेकिन कोई मिला नहीं। क्या आप में से किसी का इरादा नहीं है? अब जब सङ्गणक के ग़ुलाम बन ही चुके हैं तो पूरी तरह ही बनते हैं न। अब तो नौ दो ग्यारह होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
 
हर रोज़ नई कहानी। हर रोज की एक नई समस्या। क्या करें, मन तो करता है कि नौ दो ग्यारह हो जाएँ, लेकिन नहीं हो पाते। प्राथमिक उपचार के बारे में एक स्थल मिला है। अच्छा है। ऐसे स्थल और होने चाहिए, और ऐसे वाले भी।
गुरुवार, सितंबर 25, 2003 19:54
 
कई बार यह गाना सुना है, और अच्छा भी लगता है, लेकिन कभी ध्यान से इसके बोल नही सुने, कल के पहले।

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी, हैरान हूँ मैं
ओ हैरान हूँ मैं
तेरे मासूम सवालों से परेशान हूँ मैं
ओ परेशान हूँ मैं

जीने के लिये सोचा ही न था, दर्द सम्भालने होंगे
मुस्कुराऊँ तो, मुस्कुराने के कर्ज़ उठाने होंगे
मुस्कुराऊँ कभी तो लगता है
जैसे होंठों पे कर्ज़ रखा है
तुझसे ...

आज अगर भर आई हैं, बूँदें बरस जायेंगी
कल क्या पता इनके लिये आँखें तरस जायेंगी
जाने कहाँ गुम कहाँ खोया
एक आँसू छुपाके रखा था
तुझसे ...

ज़िन्दगी तेरे ग़म ने हमें रिश्ते नये समझाये
मिले जो हमें धूप में मिले छाँव के ठंडे साये

ओ तुझसे ...

मुस्कुराऊँ कभी तो लगता है जैसे होठों पे कर्ज़ रखा है, कमाल है। कुछ व्यक्त करना तो कला ही है, कौन सोच सकता था कि इस जज़्बात को इस तरह से भी ज़ाहिर किया जा सकता है? मुस्कुराऊँ कभी तो लगता है जैसे होठों पे कर्ज़ रखा है। जाने कहाँ गुम, कहाँ खोया, एक आँसू छुपाके रखा था। कमाल है।



सोमवार, सितंबर 22, 2003 14:33
 
गुजराती की कुछ मुद्रलिपियाँ मिली हैं, माइक्रोसॉफ़्ट की श्रुति के अलावा यही दिखी है। अभी तक गुजराती की कोई मुक्त मुद्रलिपि नहीं थी, वैसे मुझे यह नहीं पता है कि यह मुद्रलिपियाँ कौन से अनुमति पत्र के तहत वितरित की गई हैं। न ही मैं इनकी जाँच कर पाया, क्योंकि मुझे गुजराती लिखनी नहीं आती, इसलिए संयुक्ताक्षरों के बारे में मुझे पता नहीं चल पाएगा।
गुरुवार, सितंबर 18, 2003 13:02
 
सिर दर्द, सिर दर्द। मतलब नींद पूरी नहीं हुई, या ऑक्सीजन की कमी है। तो क्या किया जाए? आराम करना चाहिए। जब ब्लॉग लिखने बैठते हैं तो बहुत सुकून मिलता है, ऐसा लगता है कि हमारे पास बहुत समय है, तभी हम यह सब कर पा रहे हैं। वैसे इस बहाने मैं कुछ हिन्दी तो लिख पाता हूँ। अच्छी बात है। सराय की एक कार्यशाला है हिन्दी अनुवाद के बारे में, दिल्ली में। लेकिन मैं नहीं जा पाऊँगा उसमें। अपनी दिलचस्पी के काम कभी हो ही नहीं पाते। नौ दो ग्यारह होते हैं और सिर दर्द का इलाज ढूँढते हैं।
शुक्रवार, सितंबर 12, 2003 07:55
 
काम,काम,काम, बहुत काम है। क्या करें, क्या न करें पता नहीं चलता। लगता है छुट्टी ही ले लूँगा। किस्सा खत्म।
गुरुवार, सितंबर 11, 2003 21:26
 
मूवेबल टाइप कुछ बढ़िया चीज़ ही होगी, क्योकि कई स्थल इसकी मदद से बने हैं, और इसका हिन्दीकरण करने में काफ़ी मज़ा आना चाहिए
शुक्रवार, सितंबर 05, 2003 08:13
 
हर रोज़ इतनी ठण्ड होती है कि गर्दन पिछले एक हफ़्ते से अकड़ी ही हुई है। अब तो यह खत्म होगी दो तीन महीने में ही। अधिकतर लोग यही समझते हैं कि जब तक आपके पास इण्टर्नेट ऍक्स्प्लोरर न हो आप हिन्दी देख ही नहीं सकते। जबकि यह सही नहीं है। लेकिन इतना भी निश्चित है कि माइक्रोसॉफ़्ट की कृतियाँ इस मामले में कहीं आगे हैं। और बाकी उनकी नकल कर रहे हैं। ग्नू मुक्त प्रलेखन अनुमतिपत्र के हिन्दी अनुवाद के बारे में कुछ टिप्पणियाँ और सुझाव आए हैं, कि इसमें सुधार की आवश्यकता है।
गुरुवार, सितंबर 04, 2003 07:57
 
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने मदन मोहन मालवीय के बारे में लेख इकट्ठे किए हैं। वैसे, मैंने सुना है कि वह जब विदेश गए थे तो उसके बाद प्रायश्चित किया था, क्योंकि समुद्र यात्रा करना पाप माना जाता है? यह बात कुछ हज़म नहीं हुई।
बुधवार, सितंबर 03, 2003 07:39
 
एक और शब्दकोष मिला है, इस बार है बाल शब्दकोश। किसी भी शब्द का कई भाषाओं में अर्थ प्रदान करता है।
मंगलवार, सितंबर 02, 2003 00:23
 
एक जर्मन से हिन्दी और हिन्दी से जर्मन शब्दकोष मिला है। इसके सङ्कलनकर्ताओं में एक हैं अर्न्स्ट ट्रॅमॅल, जिन्होंने शिदेव मुद्रलिपि भी बनाई है।
सोमवार, सितंबर 01, 2003 07:54
 
मोज़िला में मैं जैसे ही गायत्री मन्त्र वाले पन्ने पर जाने की कोशिश करता हूँ वह नौ दो ग्यारह हो जाता है। तो क्या मोज़िला नास्तिक है?

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